भगवान ने अपने मुख से ब्राह्मण और भुजा से क्षत्रीय और जांघ से वैश्य और चरण से शूद्रों को बनाया. उसमें वैश्यों को चार कर्म का अधिकार दिया गया प्रथम खेती द्वितीय गाय की सुरक्षा तृतीय व्यापार एवं चतुर्थ ब्याज. प्रथम मनुष्य जो कि वैश्यों में हुआ उसका नाम धनपाल था और धनपाल को ब्राह्मणों ने प्रताप नगर में राज पर बिठाकर धन का अधिकारी बनाया. महाराज धनपाल के घर में पुत्र पुत्रियों का जन्म हुआ. कालांतर में इसी वंश में बल्लभ नामक एक राजा हुए और उनके घर में बड़े प्रतापी अग्र राजा उत्पन्न हुए उन्हें ही अग्रसेन के नाम से जाना गया. कहा जाता है कि महाराजा अग्रसेन ने देवराज इन्द्र से भी युद्ध किया था महाराजा अग्रसेन ने नाग लोग के राजा नागराज की कन्या माधवी से विवाह किया था इस कारण से अग्रवाल बंधु नाग कन्याओं की जननी माने जाते हैं. एक बार राजा अग्रसेन ने बहोत बड़ा महालक्ष्मी यgya किया जिससे प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने वर दिया की आज से ही यह तेरा वंश तेरे नाम से अर्थात अग्रसेन महाराज कॉ वंश होगा एवं कुल देवी के रूप में महालक्ष्मी की पूजा होगी तभी से अग्रवाल अग्रसेन जी के वंशज माने जाते हैं एवं उनकी कुल देवी के रूप में माता महालक्ष्मी की उपासना की जाती है.
गोत्रों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ है। कुछ का कथन है कि महाराजा अग्रसेन ने 18 यज्ञ किये। प्रत्येक य़ों से ही इनके गोत्रों के नाम पड़े। जब वे अठारहवां यज्ञ कर रहे थे तब उनको निर्दोष पशुओं की बलि के समय बउत्रा दुख होने लगा और बिना यज्ञ समाप्त किया हुए ही वे उठ खड़े हुए और अपने वंशजों के लिए यह आदेश किया कि आज से हमारे वंश में बलि न दें। और न कोई पशुओं की हत्या करे। यह ऊपर लिखा ही जा चुका है कि महाराज के 17 रानियाँ एवं एक उपरानी थी। अतएव इन्हीं के वंशज अग्रवाल कहलाये। उन साढ़े सत्रह यज्ञों से साढ़े सत्रह गोत्र हुए जो आज भी अग्रवाल समाज में विद्यमान हैं।
सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन ऐक्ट २१ सन् १८६० ई० के अनुसार पंजीकृत
(१) नाम- इस संस्था का नाम काशी अग्रवाल समाज है ।
(२) इस समाज का बीज मन्त्र “व्यापारे बसते लक्ष्मी:” है। जिस उद्देश्यों से यह समाज स्थापित किया गया है वे निम्नलिखित हैं -
अग्रवाल जाति में शारीरिक, आत्मिक और मानसिक उद्देश्य शिक्षा की, स्वभाव की, सामाजिक व धार्मिक रीति व्यवहार तथा आचारों की उन्नति करना, परस्पर सहा यता के भाव की वृद्धि करना और वाणिज्य तथा व्यवसाय की शक्ति को पुष्ट करना ।
(३) (क) उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धन एकत्रित करना एवं उसका उचित रीति से प्रबन्ध करना और व्यय करना ।
(ख) चल और अचल सम्पत्ति का क्रय या उसको पट्टे, बदले,भाड़े अथवा दान इत्यादि से लेना और या जो समाज के लिए आवश्यक हो प्राप्त करना ।
(ग) समाज की सम्पत्ति के कुल अथवा कुछ भाग की उन्नति करना, बेचना, रेहन करना, किराये या पट्टे पर देना या किसी अन्य प्रकार से उसका प्रबन्ध करना ।
(घ) उपरोक्त उद्देश्यों या उनमें से किसी एक उद्देश्य की पूर्ति के लिये जो कुछ आवश्यक हो करना।
(च) समाज के कार्य सम्बन्धी नियमों का बनाना तथा उनका अदल बदल करना ।
छ) नियमानुसार सभासदों का चुनाव करना तथा पृथक करना ।
(४) इस समाज की आय और सम्पत्ति चाहे वह कहीं से प्राप्त हुई हो, सभासदों का केवल इसी समाज के उपरोक्त उपदेश्यों की पूर्ति या आर्थिक लाभ उन्नति में लगायी जायगी। उसका कोई भाग उन लोगों का न होना जो कि समाज के सभासद हैं या रहे हों .